"शिवचरित्र – निनाद बेडेकर जी के शब्दों में"
🔰 प्रस्तावना – भारत को शिवाजी महाराज को फिर से जानना होगा
छत्रपती शिवाजी महाराज महाराष्ट्र में यह नाम केवल इतिहास नहीं, श्रद्धा का स्रोत है। हर घर में, हर मन में, उनकी गाथा जीवित है।
लेकिन कटु सत्य यह है कि आज भी भारत के बहुत बड़े भाग में शिवाजी महाराज को केवल "एक मराठा राजा" समझा जाता है। वो शिवाजी महाराज — जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए मुग़लों, आदिलशाही, निजाम और पोर्तुगीजों से अकेले लोहा लिया — जिनके कारण आज हम स्वतंत्र मंदिरों में पूजा कर पाते हैं, उन्हें केवल महाराष्ट्र तक सीमित कर देना, ये इतिहास से विश्वासघात है। यह श्रृंखला उसी अन्याय को तोड़ने का प्रयास है। यह केवल लेख नही - यह एक राष्ट्रीय संकल्प है। “हर भारतीय को शिवाजी महाराज को जानना चाहिए। क्योंकि वो केवल महाराष्ट्र के राजा नहीं थे — वो सम्पूर्ण भारत की आत्मा थे।”
अब इस श्रृंखला के माध्यम से शिवराय की तेजस्वी गाथा हर राज्य, हर भाषा, हर पीढ़ी तक पहुँचेगी। 🗡 यह श्रृंखला प्रेरित है महान वक्ता निनाद बेडेकर जी के व्याख्यानों से....
🧵 शिवचरित्र – पर्व 1 | "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे..."
(पूरी तरह निनाद बेडेकर जी के व्याख्यान पर आधारित)
शब्दों से जब शौर्य झलकता है और स्तुति से जब संकल्प जागता है —
तब कोई साधारण व्याख्यान नहीं होता, वह युगपुरुषों की स्मृति में दीया जलाना होता है।
निनाद बेडेकर जी अपनी प्रस्तुति की शुरुआत करते हैं उस शक्ति को प्रणाम करते हुए जो हर चेतन जीव में क्रांति रूप से स्थित है:
"या देवी सर्वभूतेषु क्रांती रूपेण संस्थिता, नमस्तस्य नमस्तस्य नमस्तस्य नमो नमः "
यह वंदना केवल श्लोक नहीं — वह ज्योति है जो हमें यह स्मरण कराती है कि
क्रांति भी देवी है, और उसका भी वास जन-जन में है।
इसी ज्योति से अगला दीप प्रज्वलित होता है — भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में:
"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे..."
बेडेकर जी सावधानीपूर्वक इस श्लोक के प्रथम शब्द “धर्मक्षेत्रे” पर ध्यान खींचते हैं।
यह कोई भूगोल नहीं था — वह आध्यात्मिक युद्धभूमि थी,
जहाँ धर्म और अधर्म आमने-सामने खड़े थे।
लेकिन वे पीड़ा के साथ उल्लेख करते हैं कि
विनोबा भावे ने गीता के मराठी अनुवाद “गीताई” में "धर्म" शब्द को हटा दिया और उसे "पवित्र कुरुक्षेत्र" कह दिया।
वे प्रश्न करते हैं —
“आख़िर धर्म शब्द से इतनी घबराहट क्यों? लोग इससे कतराते क्यों हैं?”
क्या यह शब्द इतना भार लिए हुए है कि उसे सहा नहीं जाता?
फिर बेडेकर जी हमें ले जाते हैं धर्म के असली स्वरूप की ओर।
वे स्पष्ट करते हैं कि धर्म कोई पूजा पद्धति या कर्मकांड नहीं —
वह है अन्याय का प्रतिकार,
अविवेक पर विवेक की विजय,
अधर्म के विरुद्ध साहसिक संघर्ष।
वे कहते हैं —
“श्रीकृष्ण ने जो किया, वह धर्म था — और शिवाजी महाराज ने जो जिया, वह उसी धर्म का पुनरुत्थान था।”
धर्म = विवेक की ज्वाला
कृष्ण ने अर्जुन से कहा था —
“न अन्याय सहो, न भ्रम में रहो — उठो, युद्ध करो!”
शिवाजी महाराज ने यही उद्घोष इतिहास में मूर्त रूप में खड़ा किया।
उनके लिए धर्म न तो तलवार का अहंकार था, न ही तिलक का प्रदर्शन —
वह था समर्पण, सेवा, और स्वराज्य की प्रतिष्ठा।
महाराष्ट्र धर्म = भारत का आत्मस्वर
बेडेकर जी कहते हैं -
“मैं देश भर में घूमा, लेकिन कहीं ‘केरल धर्म’, ‘उड़ीसा धर्म’, ‘गुजरात धर्म’ नहीं मिला — पर ‘महाराष्ट्र धर्म’ है। क्यों?”
क्योंकि यह धर्म केवल भूगोल नहीं -
वह स्मृति है शौर्य की, भाषा है भक्ति की, और ध्वनि है स्वराज्य की।
शिवाजी महाराज इस धर्म के वाहक थे।
वह धर्म जो कहता है —
“अन्याय के विरुद्ध उठो, और उठकर नतमस्तक मत हो — बल्कि संघर्ष करो।”
निष्कर्ष
बेडेकर जी गीता से शुरू करते हैं, पर वह मंच हमें अंततः शिवाजी महाराज तक ले जाता है —
जहाँ श्रीकृष्ण का संकल्प तलवार उठाकर मर्यादा में ढल जाता है।
धर्म = केवल पूजा नहीं, प्रतिकार है।
और छत्रपति शिवाजी महाराज = उस प्रतिकार की दीपशिखा।
क्रमश.....
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